मैंने अपनी श्रृंखला में ग्यारह-बारह की उम्र अभी तक पार नहीं की है. किशोरावस्था (टीन एज) की यादें बाद में ही आयेंगी. अभी प्रायमरी शाला की उम्र की यादों का एपिसोड ही चल रहा है. हाँ तो पिछली श्रृंखला में मैंने रेडियो को गीत सुनने का पहला साधन बताया था. दूसरा साधन था रिकार्ड-प्लेयर या कहिये ग्रामोफोन . मेरे जमाने में ग्रामोफोन प्राय: आम घरों में उपलब्ध नहीं होता था. यह यंत्र बिजली से चलता था पर अधिकतर घरों में बिजली कनेक्शन भी नहीं हुआ करते थे,खास कर गाँवों में. इसीलिये बड़ी वाली बैटरी अनिवार्य होती थी.
एक ग्रामोफोन, एक एम्प्लीफायर ,एक ध्वनि विस्तारक यंत्र (इसे हम पोंगा कहते थे) और 78 स्पीड के रिकार्ड (तवा कहते थे) का सेट रहता था. विशेष समारोहों पर इसे किराये पर लाया जाता था. उस जमाने में छट्ठी बहुत धूम-धाम से मनायी जाती थी. किसी के घर यदि रिकार्ड बज रहा है तो यह समझा जाता था कि उसके घर में छट्ठी होगी.छट्ठी तो आप समझ रहे हैं ना,बच्चे के जन्म का छठवाँ दिन छट्ठी कहलाता है.
उस जमाने के रिकार्ड प्लेयर में मोटर-वोटर नहीं होती थी. प्लेयर में घड़ी की तरह एक स्प्रिंग होता था जिसे जेड आकार की चाबी भर के घुमाया जाता था. एक डिस्क पर तवा रखा जाता था. चाबी भरने से स्प्रिंग टाइट हो जाता था स्पीड को 78 RPM पर सेट करके चाबी निकाल ली जाती थी.स्प्रिंग ढीला होने से डिस्क घूमती थी और उस पर रखा तवा भी घूमने लगता था. तवे पर एक हैंडल रखा होता था जिसमें लगभग एक सेंटी मीटर लम्बाई की सुई लगी रहती थी.इस सुई को प्राय: हर गीत के बाद बदला जाता था. सुई रखने के लिये एक डिब्बी भी होती थी.
हर गीत के बजने के बाद सुई बदली जाती थी और चाबी भी भरी जाती थी. 78 RPM के तवे में दोनों ओर एक-एक गाना होता था. ये रिकार्ड प्राय: HMV के ही होते थे. तवे के बीच में एक छेद होता था जिसके सहारे इसे डिस्क में फँसाया जाता था. तवे के बीचों बीच दोनों ओर लाल-गुलाबी रंग का कागज चिपका होता था जिस पर सिल्वर कलर से रिकार्ड बनाने वाली कम्पनी का नाम , फिल्म का नाम , गायक ,गीतकार और संगीतकार का नाम अंकित रहता था.
कालांतर में जब 78 स्पीड के रिकार्ड चलन के बाहर हुये तो तवे पर पेंटिंग करके या इस पर शंख्, मोती, सीप चिपका कर कलाकृति बना कर बैठक रूम में सजाया जाता था. मेरे संग्रह में आज भी मदर इंडिया का गीत—होली आई रे कन्हाई , कोहिनूर का गीत – मधुबन में राधिका नाचे रे सुरक्षित है. हाँ एक बात और याद आई .इन तवों को कागज के प्रिंटेड कव्हर में रखा जाता था. कव्हर का बीच का हिस्सा गोलाकार कटा हुआ रहता था जिससे रिकार्ड में चिपके लाल-गुलाबी कागज पर छपा विवरण पढ़ा जा सके. घरों में पोंगा प्राय: घर की छानी ( कवेलू वाली छत) पर बाँधा जाता था ताकि गाना दूर-दूर तक सुना जा सके.
उस जमाने में फिल्मी गीत सुनने का तीसरा साधन टाकीज वालों का प्रचार तंत्र हुआ करता था. सिनेमा- हाल वाले नई फिल्म लगने पर शहर भर में किसी वाहन के द्वारा प्रचार करते थे. वाहन में माइक लेकर एक व्यक्ति बताते फिरता था कि अमुक टाकिज में अमुक फिल्म लगी है. वह फिल्म के हीरो हिरोइन के नाम भी बताता था. वाहन के दोनों ओर स्थानीय पेंटर द्वारा तैयार किये हुये पोस्टर भी लगे होते थे. बीच-बीच में फिल्मी गाने भी बजा करते थे और प्रचार सामग्री के रूप में पाम्प्लेट भी लुटाते रहते थे. उस उम्र में हम वाहन के पीछे भाग-भाग कर पाम्प्लेट इकट्ठा करते थे.
सिनेमा के पोस्टर शहर के प्रमुख स्थानों पर लगा करते थे. ये सारे पोस्टर स्थानीय पेंटर बनाते थे. सिनेमा हाल क्या बंद हुये ,उन पेंटरों की रोजी-रोटी भी गई. जरा सोचिये , फिल्मी गीत सुनने के इतने सीमित साधन होने के बावजूद भी उस जमाने के गीत कितने हिट हुआ करते थे और तो और सुनने वालों को पूरा का पूरा गीत ही याद रहता था.
एक बार फिर निवेदन करना चाहूंगा कि मेरे अंचल की भाषा छत्तीसगढ़ी बहुत ही सरल तथा मधुर भाषा है. मेरे दो ब्लाग्स (http://mitanigoth.blogspot.com और http://gharhare.blogspot.com) में आप पढ़ सकते हैं. छत्तीसगढ़ी में श्री संजीव तिवारी जी के ब्लाग गुरतुर गोठ (www.gurturgoth.com) में भी आपको छत्तीसगढ़ी सहित्य का भंडार मिलेगा...............................................क्रमश:.....................................................................
-अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग
(छत्तीसगढ़)