आज की श्रृंखला में बचपन के फिल्मी गीतों की कुछ यादों को तरोताजा किया जाये. उस जमाने के नये हिट गीत बजा करते थे - तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नजर ना लगे , चश्मे बद्दूर.....झूमता मौसम मस्त महीना ,आँख में काजल मुँह पे पसीना ,याल्ला याल्ला दिल ले गई......मीठी-मीठी बातों से बचना जरा ……..तुम्हीं हो माता , पिता तुम्हीं हो , तुम्हीं हो बंधु , सखा तुम्हीं हो …….और भी बहुत सारे गीत थे ,ये तो सिर्फ झलकें हैं. सही सही सन तो याद नहीं , लेकिन इन गीतों को अपने बाल्यकाल में ही सुना है.
उस जमाने में गीत सुनने के सीमित साधन उपलब्ध थे. पहला साधन था – रेडियो . शहर में बहुत कम घरों में पाया जाता था. ये रेडियो आकार में कुछ बड़े और भारी हुआ करते थे. इनमें वाल्व हुआ करते थे. रेडियो से एक वायर निकलता था जिसका दूसरा सिरा एरियल से जुड़ा रहता था. एरियल हवादार कमरे में, बैठक में या आंगन में लगभग सात से आठ फुट की ऊँचाई पर दो दीवारों में खीले से तान कर बाँधा था . यह एक जालीदार लम्बी पट्टी की तरह होता था. इसकी चौड़ाई लगभग डेढ़ से दो इंच होती थी. एरियल का उपयोग सिग्नल प्राप्त करने के लिये किया जाता था. रेडियो में काँटे के रूप में मोटी सी राड हुआ करती थी जिसे बायें से दाहिनी ओर या दहिनी ओर से बायीं ओर सरका कर मन पसंद स्टेशन का चयन किया जाता था. भीतर मध्यम लाईट जलती रहती थी. एक पैमाना (स्केल) बना होता था जिसमें अलग अलग स्टेशनों के बैंड की संख्या लिखी होती थी. घुमाने वाली “नाब” में एक तीर का निशान बना होता था. विभिन्न स्टेशनों के नाम नाब के इर्द गिर्द लिखे हुये होते थे . जैसे सिलोन , आस्ट्रेलिया , आदि. रेडियो में स्पष्ट आवाज के लिये बैंड होते थे किसी भी स्टेशन के लिये पर्याप्त रेंज हुआ करती थी. उस उम्र में रेडियो पर गाने सुनना बहुत अच्छा लगता था. समाचार सुनना तब बिल्कुल भी नहीं भाता था.
सोचा था कि इसी पोस्ट में ही सभी साधनों की चर्चा हो जायेगी किंतु वक्त अब इजाजत नहीं दे रहा है. बाकी बातें अगली पोस्ट में. चलते – चलते एक निवेदन करना चाहूंगा कि मेरे अंचल की भाषा छत्तीसगढ़ी बहुत ही सरल तथा मधुर भाषा है. मेरे दो ब्लाग्स में आप पढ़ सकते हैं. छत्तीसगढ़ी में संजीव तिवारी जी के ब्लाग गुरतुर गोठ (www.gurturgoth.com) में भी आपको छत्तीसगढ़ी साहित्य का भंडार मिलेगा...............................................क्रमश:.....................................................................
-अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग
(छत्तीसगढ़)
पुरानी यादे भी ऐसी होती है कि बार-बार याद आती है,
ReplyDeleteये एरियल आजकल मोबाइल में आ गया है,
वो भी क्या दिन थे ...!
ReplyDeleteपहले तो डब्बा जैसा रेडियो होता था, अब तो चिप में आ गया है।
ReplyDeleteरेडियो और एरियल सब आँखों के सामने आ गया .. गाना तब ही सुन पाते थे जब पापा ऑफिस में होते थे ..वरना तो बस टाइम से खबरें ही सुनने को मिलती थीं ..
ReplyDeleteगाने तो उस समय के बहुत प्यारे होते थे ...जो आज तक याद हैं ...आज कल के गाने तो याद ही नहीं रहते ..
छुपा लो यूँ दिल में प्यार मेरा की जैसे मंदिर में लौ दिए की ...जहाँ ऐसे गाने थे तो वहाँ ..लाल छड़ी मैदान खड़ी जैसे भी थे ..या फिर ..हमदम मेरे मान भी जाओ ..रहते थे कभी उनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह ..
वैसे ये गाने आपके ज़माने से भी पहले के गाने हैं :):)
पुरानी यादें दिल को सकूँ देती हैं ...
ReplyDeleteनिगम जी , मैंने आप को ३० मई को आप की पसंद का आडियो बेजा था ,इस इ-मेल पर Arun Kumar Nigam पर मिला या नही ...
आप की तरफ से कोई जवाब नही ...
Hiyaa jarat rahat din rain (Mukesh).mp3
खुश रहें !
golden era of movies..
ReplyDeletethe movie I like of that time is Anand
and its song " kahin door jab"
दिलचस्प यादें...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर निगम जी, आपकी लेखनशैली बहुत अच्छी है, आपका ब्लॉग हमें अच्छा लगा, यहाँ आकर आपका समर्थक बन गया. स्वागत है आपका.
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