कुछ दिनों से चल रही निरंतर व्यस्तता ने बचपन की ओर जाने ही नहीं दिया. श्रीमती जी से अनुरोध किया कि अपने बचपन की यादों को ही कलमबद्ध कर दो. लीजिये इस बार श्रीमती सपना निगम की कलम से लिखी यह पोस्ट प्रस्तुत कर रहा हूँ.
मेरा मायका छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की तहसील बालोद में है. सब के बचपन की ही तरह मेरा बचपन भी बड़ी मस्ती से गुजरा. हम पाँच बहने और दो भाई एक साथ कई तरह के खेल खेला करते थे. घर में ही सात बच्चों की टीम . छुट्टियों के दिन सारा समय खेलते कूदते बीतता था. बालपन में अजीब – अजीब शौक भी हुआ करते थे . कहीं झगड़ा हो रहा हो तो दौड़ कर दर्शक बन जाते थे. बड़े ध्यान से झगड़ने का ढंग देखते रहते थे. झगड़ने वालों की आवाज का उतार चढ़ाव ,चेहरे पर आते -जाते कई तरह के भाव , चढ़ी हुई त्यौरियाँ , हाथों की भाव - भंगिमायें और दोनों पक्षों के तेवर देखने में बहुत मजा आता था. इससे ज्यादा मजा तब आता था जब झगड़ा समाप्त होने के बाद घर आकर अपनी छोटी बहनों (छोटी और पूनम) के साथ उस झगड़े की नकल उतारते थे. आँखों और हाथों को नचा नचा कर झगड़े के संवादों को हूबहू बोलने की कोशिश करते थे. यदि किसी को नकल करते - करते हँसी आ गई तो झगड़े का “ री-टेक” होता था.
हमारे घर के पीछे एक छात्रावास था. छात्रावास के पीछे कुछ परिवार रहा करते थे. किसी की मुर्गी को उसके पड़ौसी ने चुपके से मार कर खा लिया था. इसी बात पर झगड़ा शुरू हो गया . झगड़े की आवाज सुनते ही छोटी के साथ दौड़ पड़ी झगड़ा देखने के लिये. झगड़ा दो महिलाओं के बीच ठना था. जिसकी मुर्गी चोरी हो गई थी (इसे आगे वादी लिखा जायेगा) अपनी पड़ोसन पर (इसे आगे प्रतिवादी लिखा जायेगा) मुर्गी चुराने और पका कर खाने का आरोप लगाये जा रही थी . प्रतिवादी लगातार आरोप का खंडन करते हुये वादी से लड़ रही थी. आस-पास की अन्य महिलायें और बच्चे गोल घेरा बना कर झगड़ा देख रहे थे. मैं भी छोटी के साथ इस भीड़ का एक हिस्सा बनी हुई थी.
वादी और प्रतिवादी के संवाद छत्तीसगढ़ी में ठेठ रूप से निर्बाध चले जा रहे थे. वादी अपनी दोनों मुठ्ठियों को मिलाते हुये भींच कर झटके से आगे कर प्रतिवादी को नाना प्रकार के श्राप भी देती जाती थी (इसे छत्तीसगढ़ी में बरजना कहते हैं , हिंदी में क्या कहते हैं मुझे नहीं मालूम) सारे संवाद तो याद नहीं हैं. याद रहते भी तो सेंसर करना ही पड़ता. हाँ ,एक संवाद जरूर याद है जब वादी का गुस्सा हद से ज्यादा बढ़ गया तो उसने कहा था – जइसे मोर आत्मा कलपत हे , वइसने मोर कुकरी के आत्मा भी कलपही ( जैसे मेरी आत्मा तड़फी है वैसे ही मेरी मुर्गी की आत्मा भी तड़फेगी ) संवाद सुनकर झगड़ा देख रहे लोग हँस पड़े तब अचानक वादी को लगा कि अरे ! संवाद तो मुँह से गलत निकल गया है ,मैं और मेरी मुर्गी ही तड़फी है , प्रतिवादी तो बीच में आई ही नहीं . फिर उसने संशोधित करते हुये कहा – मोर कहे के मतलब हे कि जइसे मोर आत्मा कलपे हे , वइसने जो मोर कुकरी ला खाये हे ओखरो आत्मा कलपही. (मेरे कहने का मतलब है कि जैसे मेरी आत्मा तड़फी है , वैसे ही जिसने मेरी मुर्गी को खाया है ,उसकी आत्मा भी तड़फेगी).
झगड़ा समाप्त होने के बाद घर आकर जब छोटी के साथ आपस में उस झगड़े की नकल करने लगे तो बाकी अभिनय तो हम बखूबी कर लेते थे , बस गलत बोला गया संवाद और संशोधित संवाद का जब वक़्त आता था तो हँसी रोके से भी नहीं रुकती थी. री टेक पे री टेक होते गये मगर बीच में आने वाली हँसी के कारण झगड़े का एपिसोड कभी पूरा नहीं हो पाया. आज भी उस झगड़े की याद आती है तो बरबस ही हँसी आ जाती है.
श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
वादी प्रतिवादी का झगडा,
ReplyDeleteऔर बरजना को हिन्दी में कोसना कहते है। उस मुर्गी चोर का पता चला की नहीं।
वाकई सपना जी, आपने बहुत ही रुचिकर पठन सामग्री प्रस्तुत की है। हार्दिक शुभकामनायें।
ReplyDeleteबधाई श्रीमती निगम जी ,
ReplyDeleteऐसे ही बचपन याद कर के ,अकेले में भी चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है |
खुश रहें |
शुभकामनाएँ !
रोचक संस्मरण ...
ReplyDeleteआज तो हम भी रिटेक पर रिटेक किए जा रहे थे, किसी तरह यह संवाद मेरा पूरा हो पाया है ...!
ReplyDeleteसंवद से संस्मरण का अद्भुत संस्मरण! दृश्य जैसे सजीव हो नज़र के सामने थे। आप के बचपन की हरकतों की मासूमियत मन मोहने वाली है।
Sapna nigam has presented her memories so vividly.
ReplyDeleteLoved the read.
सपना जी ,
ReplyDeleteबहुत बढ़िया अंदाज़ में ये संस्मरण लिखा है आपने। पूरा चित्र सजीव हो उठा आँखों के आगे । और बरबस ही हंसी आ गयी इस रे-टेक पर। अरुण जी , आपका भी आभार , हमें सपना जी के संस्मरण से रूबरू करवाया।
Vaah! aanand se bhar diya...aatma tript hua...badhai...
ReplyDeleteबहुत ही प्यारा संस्मरण लिखा है आपने।
ReplyDeleteवादी और प्रतिवादी ? अरे जब मुर्गी चोरी हुई तो फरियादी और आरोपी होना चाहिये था। गुस्से में ये होता है तडपने वाली बात उलट गई । अच्छा लगा आपका संस्मरण
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर संस्मरण लिखा है आपने।
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
वादी औ प्रतिवादी का संवाद सुनकर मुर्गी की आत्मा भी हंस पड़ी होगी।
ReplyDeleteमेरे खयाल से बरजना की जगह बक्खानना होना चाहिए।
इस रोचक संस्मरण के लिए आभार, निगम जी।
very interesting!
ReplyDeleteडायरी के इन पन्नों की कीमत बीतते वक्त के साथ और बढती जाती है... मैडम का अपने बीते जीवन को याद कर कलमबद्द करना बहुत अच्छा प्रयास है... बधाई!!!
ReplyDeleteये बच्चे बड़े प्रवीण होतें हैं सब कुछ प्रेक्षण में लेतें हैं और बरसों बाद भी उस ताने बाने को रच लेतें हैं .वादी -प्रति -वादी संवाद काश एक दो छत्तीसगढ़िया उपालंभ और होते .अच्छा संस्मरण .
ReplyDeleteबहुत रोचक!
ReplyDeleteअपने ब्लाग पर आपकी टिप्पणी पढ़ कर खुशी हुई। बचपन से संबंधित सराहनीय पोस्ट के लिए बधाई।
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