सियानी गोठ 
 
 

जनकवि कोदूराम “दलित”
6.   
कपूत
दाई  -  ददा   रहयँ   तभो  , मेंछा  ला  मुड़वायँ
लायँ  पठौनी अउर उन  ,  डउकी के बन जायँ
डउकी  के  बन  जायँ  , ददा - दाई  नइ भावयँ
छोड़-छाँड़ के उन्हला, अलग पकावयँ-खावयँ
धरम  -  करम सब भूल जायँ भकला मन भाई
बनयँ  ददा  -  दाई   बर   ये   
कपूत   दुखदाई.
[कपूत - माता-पिता के जीवित रहते हुये, मूँछ मुंडवाते हैं.
ब्याह कर पत्नी लाते हैं और उसी के होकर रह जाते हैं. फिर उन्हें माता-पिता नहीं भाते
. माता- पिता को छोड़ कर अलग से पकाते और खाते हैं. ये मूर्ख धर्म-कर्म सब भूल जाते
हैं. ऐसे कपूत माता-पिता के लिये दुखदाई होते हैं]
 
सटीक ... सुंदर रचना पढ़वाने के लिए आभार
ReplyDeleteबड़ा प्रायोगिक उदाहरण..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ||
ReplyDeleteसही कहा आपने ... !!
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