दूर अपनों से बहुत , बसने लगे हैं लोग
आईना रख सामने , हँसने लगे हैं लोग.
दाँत - काटी रोटियों के ,लद गए वो दिन सुनहरे
अब वफ़ा के दाँत से , डसने लगे हैं लोग.
चढ़ तरंगों पर जो पश्चिम से चली आई यहाँ
उन मकड़ियों के जाल में , फँसने लगे हैं लोग.
गंगा-जमुना की इबादत , छोड़ कर न जाने क्यों
पाप की दल-दल में अब , धँसने लगे हैं लोग.
इल्म की किरणों का जाने,हश्र होगा क्या 'अरुण'
अब तो ताना धूप पर , कसने लगे हैं लोग.
-अरुण कुमार निगम
एच .आई.जी. १ - २४
आदित्य नगर,दुर्ग
छत्तीसगढ़
एच .आई.जी. १ - २४
आदित्य नगर,दुर्ग
छत्तीसगढ़
चढ़ तरंगों पर जो पश्चिम से चली आई यहाँ
ReplyDeleteउन मकड़ियों के जाल में , फँसने लगे हैं लोग
क्या बात है अरुण भाई पूरा का पूरा सूफियाना नजरिया है आपका
दुष्यंत कि याद आ गई|कल और आज के बीच -क्या से क्या हो गया
आपकी कविता में दर्शन है |साहित्य कि विधा में आप आलराउंडर
हो