क्यों भेजा था बाबुल तूने
दुनियाँ के गलियारों में ?
कैसे खुद की रक्षा करती
इन मदमस्त बहारों में ?
जान के बेटी ,मेरे संग क्यों
सौतेला व्यवहार किया
क्यों ना समझूँ औरों जैसा
तूने भी व्यापार किया.
बेटा होता ,यदि मैं
करता तू परवाह हजारों में...........
सबकी आँखें गड़ी हुई थी
मेरी यौवन गगरी में
कब तक खुद को बाँध मैं पाती
संस्कार की गठरी में.
गठरी खुली,भ्रमित हो गई मैं
प्रियतम की मनुहारों में..........
कोरी चुनरिया ओढ़ के आई
थी, मैं तेरे इस जग में
राह में फिसलन ही फिसलन थी
फिसल गई मैं,जगमग में.
अब मुझ पर आरोप लगाता
बाबुल ! क्यों दरबारों में..............
अब तो अपने पास बुला ले
मैं तेरी ही जायी हूँ
भूल के भी मत कहना बाबुल !
बेटी एक परायी हूँ.
अग्नि-परीक्षा ले के देख
मैं पली-बढ़ी अंगारों में.................
-अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग (छत्तीसगढ़)
दर्द है इस कविता में,व्यंग भी है,भारतीय सामाजिक दर्पण में बेटी के रूप में नारी कि व्यथा कि सच्चाई प्रगट कराती है
ReplyDeleteसंस्कार की गठरी में.
गठरी खुली,भ्रमित हो गई मैं
प्रियतम की मनुहारों में..........बाबुल के द्वारा दिए सारे अच्छे संस्कार प्रियतम के मनुहार में भ्रमित होना| लाजवाब है
उमा शंकर जी ,
ReplyDeleteमेरी यह रचना प्रतीकात्मक है.बेटी-आत्मा और बाबुल -परमपिता.आपने मन्नाडे का गीत सुना होगा-वो दुनिया मेरे बाबुल का घर,ये दुनिया ससुराल,जाके बाबुल से नजरें मिलाऊँ कैसे,मगर मैंने बाबुल को ही उत्तरदायी बताने का प्रयास किया है.नीरज जी की भी इन्हीं भावों पर एक कविता है-माँ मत हो नाराज की मैंने खुद ही मैली की न चुनरिया.इस नजरिये से मेरी रचना को देखेंगे तो और भी अच्छी लगेगी.