Saturday, April 23, 2011

''दो शब्द''

  
            क्षितिज ने गर्व से कहा - मैंने दिशाओं को बाँध लिया है. कल्पना आश्वस्त न हुई.उड़ चली , दिशाओं की वल्गाओं को देखने. युग बीते.....कल्पना उड़ती चली किन्तु क्षितिज की दूरी कम न हो सकी. तो क्या क्षितिज अस्तित्वहीन है ?  फिर दृष्टा क्यों ?   कल्पना का भ्रम नहीं टूटा.  क्षितिज का दर्शन उसकी गति बन गया. कल्पना के पग में बँधे नुपूर झंकृत हो उठे.  संगीत नर्तन कर बैठा. गीत अस्तित्व में आया.

            कल्पना ने मरुथल पर उड़ती दृष्टि डाली. एक हिरनी व्याकुलता  लिए भटक रही थी. तृष्णा ने नीर -मिलन की कामना को बलवती कर दिया था. कल्पना ठहरी ,  हिरन से व्याकुलता का कारण पूछा.हिरन ने भ्रम-नीर को इंगित किया. कल्पना ने उसका भ्रम तोड़ना चाहा किन्तु बावरी हिरन ने विश्वास नहीं किया.नीर-भ्रम के लिए उसने प्राण त्याग दिए.

            कल्पना की स्वतन्त्र नभ में गति देख ह्रदय भी अकुलाया. वह भी एक अस्तित्व को, जो द्रष्टा था, अंकपाश में लेने की ललक में पाषाण से टकराया. टूट कर बिखर गया किन्तु वही टूटन गुंजन बन गई. एक गीत अस्तित्व में आया.

            क्या भ्रम के पीछे भागूँ ?  वह छल है - फिर भी मेरी प्रेरणा है. उस प्रेरणा के अभाव में गति गीत नहीं बन सकती. उस टूटन की पीड़ा के बिना जीवन में माधुर्य नहीं .

           आज उस प्रेरणा के लिए विरासत में क्या छोडूँ ? मृत्योन्मुख  हूँ  .शेष रह गई है तुम्हारी पीड़ा.  विरासत में अपनी प्रेरणा को उसकी ही पीड़ा सौंप रहा हूँ. मेरा समर्पण काश ! व्यर्थ न होता,  काश ! वह मेरी विरासत स्वीकार करती....खैर !


-अरुण कुमार निगम
 

2 comments:

  1. कहानी को जिस सोच और विचार को सामने रख कर लिखी गई है |राजा भरथरी प्रसंग में हिरन हिरनी प्रसंग है|यहाँ क्षितिज और कल्पना के बीच गहराई में छुपे प्रसंग जो आद्यात्मिकता से जुडी बातों को इंगित कर रहे हैं|कल्पना के प्यासी हिरनी से बात मृग त्रिशना.वीतरागिता मेरे द्वारा समझ पाना कठिन है|क्षितिज को कल्पना के द्वारा पार पाना|निगम जी इतनी गहराई एक सूफी सन्यासी हि समझ सकता है खैर.....!बहुत ऊँची है

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  2. अरुण जी,
    चिन्तनशील लघुकथा है बधाई
    "क्या भ्रम के पीछे भागूँ ? वह छल है - फिर भी मेरी प्रेरणा है. उस प्रेरणा के अभाव में गति गीत नहीं बन सकती. उस टूटन की पीड़ा के बिना जीवन में माधुर्य नहीं"
    - विजय तिवारी ’किसलय’

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