Friday, June 24, 2011

मेरा बचपन ऐसे बीता ,,,,,,,,,,(भाग – 10)

{श्रीमती सपना निगम की कलम से}
बात उन दिनों की है जब मैं मिडिल स्कूल में पढ़ती थी. बालोद की एक मात्र गणेश टाकीज में लैला-मजनूँ फिल्म लगी थी. ऋषि कपूर और रंजीता की इस फिल्म के गाने बहुत बुलंदी पर चल रहे थे. घर में थोड़ी जिद करने से  फिल्म देखने जाने के लिये अनुमति भी मिल गई. बस चल पड़े खुश होकर लैला-मजनूँ देखने. टिकट कटा कर सिनेमा हाल में अच्छी सी सीट देख कर बैठ गये.
रिकार्डिंग खत्म हुई, हाल की लाइटें बंद हुई . कुछ विज्ञापन चले फिर फिल्म् डिवीजन की भेंट की डाक्यूमेंट्री . उसके बाद भी हाल में अँधेरा ही अँधेरा . पर्दे पर कुछ दिखाया जा रहा था मगर क्या दिखाया जा रहा है , कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. ब्लैक एंड व्हाइट में जो कुछ चल रहा था उसे हम फिल्म डिवीजन की भेंट समझ कर ही पचाने की कोशिश कर रहे थे. लगभग आधा घंटा बीत गया मगर फिल्म शुरु होने का नाम ही नहीं ले रही थी. लड़कपन तो था ही , किसी से न तो कुछ बोल पा रहे थे ना ही किसी से कुछ पूछ पा रहे थे. इंटरवेल भी हो गया . ऋषि कपूर और रंजीता का कहीं नामोनिशान ही नहीं. “ कोई पत्थर से ना मारे  मेरे दीवाने को और इस रेशमी पाजेब की झंकार के सदके”  सुनने को कान तरस गये.  
 मैंने छोटी ( Younger Sister ) से कहा – चल तो छोटी देखबो  का पिक्चर देखे हन ? (चल तो छोटी देखते हैं , कौन सी पिक्चर देख रहे हैं ?) टाकीज के बाहर आकर देखा तो पता चला कि यह तो शम्मीकपूर की पुरानी वाली लैला-मजनूँ फिल्म थी . उस उम्र में ब्लैक एंड व्हाइट फिल्में तो देखना ही पाप समझते थे. ना ही उस उम्र में उर्दू का  एक लब्ज ही समझ पाते थे .बाहर जाने का गेट भी बंद था . झक मार कर पूरी पिक्चर के खतम होने का इंतजार करना पड़ा . खेल खतम और पैसा हजम . 
उस उम्र में ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म पसंद ही  नहीं आती थी  फिर शम्मी कपूर की पुरानी और ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म  भला भेजे में कैसे घुसती ? लौट के बुद्धू घर को आये , ना जान बची ना लाखों पाये.

8 comments:

  1. हा हा ... नाम तो एक ही था न पिक्चर का ...बढ़िया संस्मरण ..

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  2. कहाँ शम्मी कपूर, कहाँ ऋषि कपूर।

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  3. एक चाचा की तो हूसरे भतीजे की ..पर हमें तो दूसरी वाली ही याद है...

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  4. वाह, ये भी ख़ूब रही।
    बढ़िया संस्मरण।

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  5. काफी रोचक संस्मरण :-)
    पुरानी लैला-मजनू के बारे में नई जानकारी भी मिली.

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  6. achha sansmaran.............

    ye beeti baaaten hi to hain jo sukhad ehsaas aksar dilaati rahti hain....

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  7. होता है कई बार ऐसे ही होता है जब जोश होता है होश नहीं बाहर लगा पोस्टर देखने का .

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  8. पहली बार आपके ब्लाग पर हूं।
    बहुत रोचक संस्मरण है। आज तो यही पढ पाया,लेकिन शुरू से पढने की उत्सुकता है।

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