Tuesday, May 31, 2011

मेरा बचपन ऐसे बीता ,,,,,,,,,,(भाग – 6)


बचपन के बाकी खेलों के बारे में फिर कभी बताऊंगा. कुछ दृश्य बदला जाये. सन 60 के दशक के शुरुवाती दौर की फिल्मों और फिल्मी गीतों के बारे में कुछ-कुछ याद आ रहा है.जहाँ तक मुझे धुँधली सी याद आ रही है , मैंने अपने जीवन में पहली फिल्म देखी थी - कण कण में भगवान. माँ के साथ गया था. उस जमाने में अच्छी तरह से याद है कि लेडीज क्लास सबसे पीछे हुआ करती थी. टिकट लेकर सिनेमा हाल में प्रवेश करने के बाद जब तक हाल की लाईट जलती थी , लेडीज-क्लास में एक काले रंग का पर्दा लगा रहता था. जैसे ही लाईट बंद होती थी, पर्दा हटाया जाता था और अब महिलायें स्क्रीन देख पाती थी. इंटरवेल होने के साथ ही लेडीज-क्लास को पर्दे से ढँक दिया जाता था. इंटरवेल समाप्ति के साथ फिर से पर्दा खोल दिया जाता था. व्यवस्था कुछ रखी जाती थी कि सिनेमा हाल में पुरुष दर्शक ,महिला  दर्शकों को देख ही नहीं सकते थे.
फिल्म शुरु होने के पहले सिनेमा हाल में केवल गीत बजा करते थे, जिससे पता चलता था कि अभी पिक्चर चालू नहीं हुई है. फिल्म शुरु होने के ठीक पहले फिल्म “ आनंद – मठ “ का हेमंत कुमार और गीतादत्त का गाया गीत - जय जगदीश हरे ....बजता था तो सभी जान जाते थे कि अब फिल्म बस शुरु ही होने वाली है. यह खूबसूरत गीत आज भी मेरे कलेक्शन में है . हेमंत कुमार की लो-पिच आवाज के समानांतर गीता दत्त की कशिश भरी आवाज हाई –पिच में ,फिर गीता दत्त की लो-पिच आवाज के साथ हेमंत कुमार की आवाज हाई-पिच में इस गीत को सुन कर आनंद के अथाह सागर में खो जाता हूँ. वाह कितनी कितनी अद्भुत संगीत रचना है. बहुत बाद में इस गीत की जगह जय संतोषी माता के टाइटिल सांग ने ले ली.
मध्यांतर के तुरंत बाद स्क्रीन पर स्लाइड के द्वारा विज्ञापन (मैनुअली) दिखाये जाते थे. जिसमें शहर के महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों के विज्ञापनों के अलावा धूम्रपान निषेध जैसे संदेश भी हुआ करते थे. मध्यांतर के समय और फिल्म समाप्त होने के बाद सिनेमा हाल में चल रही फिल्म के गीतों की किताब बिका करती थी. किताब क्या कहिये  कागज को दो फोल्ड करके(एक खड़ा और एक आड़ा) तैयार हुये आठ अविभाजित खण्डों में गीतों की छपाई की जाती थी. एक खण्ड मुख पृष्ठ बनाया जाता था जिसमें हीरो-हिरोईन की ब्लैक एन्ड व्हाइट तस्वीर ,फिल्म का नाम, कलाकारों के नाम, गायक , गीतकार और संगीतकार का नाम छपा होता था. फिल्म समाप्त होने के तुरंत बाद पर्दे पर जन गण मन .....राष्ट्रगान दिखाया जाता था जिसकी समाप्ति पर ही सिनेमा हाल के निकासी द्वार खुला करते थे................................क्रमश:.....................................
(कृपया मेरे अन्य ब्लाग्स में भी पधारें तथा छत्तीसगढ़ी को जानें)
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग ( छत्तीसगढ़ )    

10 comments:

  1. वाह अरुण जी, आपने तो एक बार फिर से पचास साल पहले की दुनिया में पहुँचा दिया! मस्तिष्क के रेकॉर्ड रूम में रखी पुरानी फाइलों को खुलवा दिया आपने। रायपुर के श्याम, शारदा और मनोहर टॉकीजों में तो फिल्म आरम्भ होने के पूर्व "जय जगदीश हरे...." गाना बजता था तो राजकमल और अमरदीप टॉकीजो में "आरती करो शंकर की...."।

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  2. उस काल में सिनेमा दिखाने की यही विधि सब जगह प्रचलित थी। इस संस्मरण से आपने वह युग जीवंत कर दिया। आभार!!

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  3. अरुण जी ,

    ऐसा लग रहा है कि आप अपने बचपन के साथ साथ हमारे बचपन को भी खंगाल रहे हैं ... फिल्म के बारे में सटीक लिखा है ...

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  4. all the posts makes me feel nostalgic, to go back in those good old days !!!

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  5. bahut sundar or khubsurati se varnan karne me safal :)

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  6. सिनेमा हौल की यह व्यवस्था बहुत ही रोचक लगी । मेरे लिए आपके संस्मरण बहुत ही उपयोगी साबित हो रहे हैं । ऐसा लग रहा है किसी और ही दुनिया में पहुँच गए हैं।

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  7. पर्दे का चलन हमें ज्ञात नहीं था।

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  8. बड़ी आत्मीयता से लिखा गया संस्मरण।
    पहली बार इस ब्लॉग पर आया हूं। आते रहने की उत्कंठा बढ़ गई।

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  9. आपका यह संस्मरण ....
    बहुत सार्थक पोस्ट!

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