Sunday, July 3, 2011

मेरा बचपन ऐसे बीता ,,,,,,,,,,(भाग – 11)


{श्रीमती सपना निगम की कलम से}
बचपन की स्मृतियों में जाओ तो बहुत सारी बातें मन को गुदगुदा जाती है, बहुत सी बातें उदास कर जाती हैं .बहुत सी घटनायें ऐसी होती हैं जो बदलती हुई या लुप्त होती परम्पराओं का भान कराती हैं. कुछ ऐसी ही घटनायें याद आ गई जिसकी पुनरावृत्ति अब इस युग में सम्भव नहीं लगती है.
बचपन में कभी माँ या नानी के साथ बाजार जाती थी तो कुछ ग्रामीण परम्परायें देखने को मिलती थी . बाजार में जब दो समधी मिलते थे तो वे आपस में कस कर गले मिल कर मिलने की खुशी प्रकट करते थे. इसे छत्तीसगढ़ में समधी – भेंट कहा जाता है. वहीं महिलायें अपनी समधन से मिल कर दोनों एक दूसरे के पैर छूती थीं.
एक दिन बाजार में देखा कि दो ग्रामीण महिलायें एक दूसरे से गले लग कर रोये जा रही थीं. उनमे से एक अधेड़ और दूसरी बूढ़ी थी.  मैं उनके पास खड़ी होकर उन्हें देखने लगी. अधेड़ महिला कुछ गा गा कर रोती जा रही थी . उसके शब्दों पर जब गौर किया तो जाना कि बूढ़ी महिला के पति की मृत्यु हो चुकी है , उस शोक से व्यथित होकर अधेड़ महिला रो रोकर अपनी सम्वेदनायें प्रकट कर रही है.
उस जमाने में छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल के कुछ समाजों में महिलाओं में बहुत दिनों बाद मिलने पर गले लग कर गा-गा कर रोने की प्रथा थी. इस रुदन में भी एक लयबद्धता होती थी. कई बार केवल इसलिये भी गले लग कर रोते  कि उनकी मुलाकात ही बड़े दिनों बाद हुई है.
अपनी भावनायें हृदय से व्यक्त की जाती थीं. यह विचार मन में आता ही नहीं था कि बाजार में पैर छूते या गले मिलकर रोते हुये देख कर बाजार में आये हुये अन्य लोग क्या सोचेंगे.
प्रथा भले ही अजीब सी लगती है किंतु भावनाओं में कितनी पवित्रता थी. एक दूसरे के सुख – दु:ख में उपजी सम्वेदनायें अंतर्मन से निकलती थी. आज यह परम्परा लुप्तप्राय हो गई है. न जाने और भी कितनी ही अच्छी परम्परायें खो चुकी हैं. आज का युग अंतरंग भावनाओं और सम्वेदनाओं से दूर होता जा रहा है. औपचारिकताओं से ही काम चलाया जा रहा है.

श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)

11 comments:

  1. अरुण जी ! मेरे ब्लॉग पर आपने यूके हिंदी सम्मलेन की विस्तृत रिपोर्ट की इच्छा जताई है.परन्तु आपका मेल आई डी नहीं मिल पाया इसलिए यहाँ लिखना पड़ रहा है कृपया अपना मेल आई डी भेज दें तो मैं विस्तृत रिपोर्ट आपको भेज दूंगी.आभार.
    shikha.v20@gmail.com

    ReplyDelete
  2. अच्छी प्रस्तुति ...आज कल ऐसे रोने को दिखावा ही कहेंगे ..

    ReplyDelete
  3. एक दूसरे के सुख – दु:ख में उपजी सम्वेदनायें अंतर्मन से निकलती थी. आज यह परम्परा लुप्तप्राय हो गई है. न जाने और भी कितनी ही अच्छी परम्परायें खो चुकी हैं.
    बिल्कुल सही कहा। आज के आधुनिक दौर में संवेदनाएं लुप्तप्राय हैं। प्रम्पराओं का धता बताकर हम आधुनिक होने का दम्भ भरते हैं।

    ReplyDelete
  4. गले लगने से कई दुख बह जाते हैं।

    ReplyDelete
  5. सुन्दर संस्मरण....
    आधुनिक बनने की अंधी दौड़ में हम संवेदन हीन होते जा रहे हैं

    ReplyDelete
  6. बहुत सुंदर संस्मरण ...तब परम्पराएँ भी बहुत खास मानी जाती थीं.....

    ReplyDelete
  7. ऐसी परम्परा गहन आत्मीयता को दर्शाती हैं।
    आजकल न वैसे लोग रहे न वैसी परम्पराएं।
    आपकी इस शृंखला को पढ़ते हुए हम भी अपने बचपन के दृश्यों को रिवाइंड करके देख पाते हैं।

    ReplyDelete
  8. jadu ki jhappi se kai dukh door ho jate hain.

    ReplyDelete
  9. आप का बलाँग मूझे पढ कर आच्चछा लगा , मैं बी एक बलाँग खोली हू
    लिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/

    मै नइ हु आप सब का सपोट chheya
    joint my follower

    ReplyDelete