बसंत को सखा जान मनुहार करती विरहिणी के भावों पर रचा यह गीत पुन: पोस्ट कर रहा हूँ
मैं किस मन से श्रृंगार करूँ....?
ओ बसंत ! तुम बतलाओ, कैसे आदर-सत्कार करूँ
प्रियतम मेरे परदेस बसे, मैं किस मन से श्रृंगार करूँ.....?
फिर पवन - बसंती झूमेगी,
हर कलि, भ्रमर को चूमेगी
चुन-चुन मीठे -मीठे गाने
कोयलिया मारेगी ताने
मधुगंध बसाये पोर-पोर
चंदा संग खेलेगा चकोर
तुम उनके देस चले जाना
धर बाँह, यहाँ पर ले आना
मेरे बचपन के साथी !! तुमसे ,इतना ही मनुहार करूँ
प्रियतम मेरे परदेस बसे, मैं किस मन से श्रृंगार करूँ.....?
जिस क्षण प्रियतम मिल जायेंगे
मन के पलाश खिल जायेंगे
सरसों झूमेगी अंग-अंग
चहुँ ओर बजेगी जल-तरंग
लिपि नयन-पटल पर उभरेगी
अंतस की भाषा सँवरेगी
हम आम्र-मंजरी जायेंगे
सेमल से सेज सजायेंगे
तुम आना मत अमराई में,मैं जब प्रियतम से प्यार करूँ
प्रियतम मेरे परदेस बसे, मैं किस मन से श्रृंगार करूँ.....?
- अरुण कुमार निगम
बसंत और विरह का अदभुत रूप ...
ReplyDeleteबेहतरीन।
ReplyDeleteसादर
विरहनी के मनुहार को जीवंत कर दिया है ..सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteअरुण जी बहुत खूबसूरत बसंत गीत रचा है आपने...बधाई...
ReplyDeleteनीरज
//चुन-चुन मीठे -मीठे गाने
ReplyDeleteकोयलिया मारेगी ताने
aar paar nikal gai sirji..
behtareen geet.. :)
अत्यन्त सुन्दरता से व्यक्त भाव, वाह..
ReplyDelete.सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteसही बात।
ReplyDeleteसुन्दर अभिवक्ति
ReplyDeleteवसंत पर सुन्दर रचना.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत
ReplyDelete