Saturday, September 3, 2011

कहानी : प्रतीक्षा


      अर्पण गुलमोहर की शीतल छाँव में बैठा , तपन का आभास कर रहा है. शिशिर की शीतल पवन, ज्येष्ठ - लू जैसे ही मचल रही है. वातावरण हिम बनने  से भयभीत है किंतु अर्पण न जाने किन ज्वालाओं में झुलस रहा है. सम्भवत: अब आ ही जायेगी, बस इसी सम्भावना में संध्या आकर चली गई और रजनी की श्यामल पलकें शनै:-शनै: उपवन के मद्धिम प्रकाश पर छाती जा रही है. सम्भावना ने अब निराशा का रूप धारण कर लिया है और निराशा ने समय की पगडंडी पर पग धर कर विश्वास से कहा – अब वह नहीं आयेगी.

     हाँ ! प्रतीक्षा अब नहीं आयेगी. अर्पण का हृदय स्वीकार कर चुका है इस सत्य को किंतु मन के किसी कोने से अभी भी प्रतीक्षा के कदमों की आहट कहीं से आ रही है. निश्चय ही यह आहट भ्रम-मात्र है, छल है.....मात्र छल.

अचानक...........निर्विकार सा अर्पण अंतस के अंतर्द्वंद्व के न जाने किस पक्ष पर विजय पा चुका है. प्रतीक्षारत नयनों में निराशा के पश्चात यह विजय-ज्योत्सना चमक उठी है और इसी ज्योत्सना में अर्पण ने देखा – उसका दुर्बल मन उसके समक्ष खड़ा होकर अभयदान मांग रहा है. 

अर्पण ने पूछा – रे मन ! तू क्यों मेरी राह रोक कर खड़ा हो गया ?......

मन ने कहा - तू प्रतीक्षा से प्रेम करता है. मैंने देखा है कि निराशा के पश्चात तेरे अधरों पर विजय की मुस्कान झलक रही है. इस मुस्कान का क्या कारण है ?

“ स्वयं को पतन से बचा कर मैंने प्रसन्नता का आभास किया है “.

“ झूठ ! बिल्कुल झूठ, प्रतीक्षा को विस्मृत करके तू विजय की मुस्कान लाकर प्रसन्न होने का निष्फल प्रयास मन कर “.

“ अरे ! मन तू वहीं का वहीं रहा. मील का पत्थर “.............

“मील का पत्थर नहीं,मैं तुम्हारा मार्ग हूँ और उद्देश्य तक तुम्हें पहुँचाने में समर्थ हूँ “.

मन की इस बात पर अर्पण हँस पड़ा – “ बड़ा पागल है रे ! मार्ग भी तो स्थिर होता है, स्थिरता कब उद्देश्य तक पहुँचने में साथ देगी ? मैं गतिशील हूँ, मुझमें प्रवाह है. तू मेरा सेतु बना तो मैं बाढ़ बन कर तेरा अस्तित्व मिटा दूंगा “......

भयभीत होकर मन ने कहा – “ अरे नहीं भाई ! प्रेमी हृदय में यह विनाश की भावना शोभा नहीं देती “.

“ तू जिसे विनाश कह रहा है ,वही प्रेम का पर्याय है “.

“ देख अर्पण ! जिद मत कर. तू प्रतीक्षा से प्रेम करता है, तुझे बढ़कर उसका हाथ थामना होगा.प्रतीक्षा नारी है. लज्जा और रिवाजों की जंजीरें उसे बाध्य कर देती हैं “.

“ बड़ा जादू कर दिया है रे ! तुझ पर प्रतीक्षा ने, बड़ा पक्ष ले रहा है. माना कि प्रतीक्षा नारी है किंतु प्रेम-पाश में बंधी नारी के समक्ष ये बंधन कुछ भी नहीं. मीरा का कृष्ण-प्रेम तू तो जानता ही है “........

“ अर्पण ! तुझे अचानक प्रतीक्षा से इतनी घृणा क्यों “ ?

“ रे मन ! यह घृणा नहीं है, अपेक्षा है. प्रेम क्या है ? एक विश्वास, एक समर्पण, एक त्याग, प्रतीक्षा में ऐसी कोई दृढ़ता नहीं है. पुरुष का तटस्थ रहना ही उचित है, नारी का झुकना ही शोभनीय है “.

“अर्पण, यह तेरा घमंड बोल रहा है,  नारी को इतना निरीह बनाने का तुझे कोई अधिकार नहीं है “.

“ मन ! नारी और पुरुष के सम्बंध प्रकृति में निहित हैं. वृक्ष सदैव तटस्थ होता है. लता उससे जाकर स्वयं लिपटती है. उसकी यही चेष्टा उसका उत्थान करती है, यदि लता से लिपटने को वृक्ष झुका तो उसका पतन हो जायेगा. यदि सम्हल भी गया तो उसकी जड़ें कमजोर हो जायेंगी. फिर वह कभी नहीं उठ सकता. वृक्ष-लता का सम्बंध स्त्री-पुरुष के सम्बंध का प्रतीक है. यदि मैं प्रतीक्षा की ओर झुकता गया तो अंतत: गिर जाऊंगा और हमेशा के लिये वह मुझ पर हावी हो जायेगी. मेरा बावलापन और उतावलापन एक कमजोरी होगी जिसे आभास कर प्रतीक्षा सोचेगी कि मैं उसके बिना नहीं रह सकता और सचमुच ही मैं उसके हाथों की कठपुतली बनकर रह जाऊंगा “.

“ तो अर्पण ! तू प्रतीक्षा को अपने कदमों में झुका कर उस पर शासन करना चाहता है “.

 नहीं मन ! मैं उसे झुकाने के पक्ष में नहीं हूँ. वह मेरे समकक्ष है, मेरे तुल्य है. उसे केवल अपनी देहरी से मेरी ओर अग्रसर होना चाहिये. मैं स्वयं उसकी देहरी में प्रवेश नहीं करना चाहता “.

“ अर्पण ! तेरा यह रूखापन प्रतीक्षा के मन में संदेह बन कर तेरे ही प्रति घातक साबित हो सकता है. यह भी सम्भव है कि अन्य को वह आलम्बन मान बैठे “.

“हाँ रे ! मैं तेरे इस सुविचार का स्वागत करता हूँ. प्रतीक्षा के संदेह और परावलम्बन का दृष्टिकोण उसके प्रेम को कसौटी पर कसेगा. जहाँ प्रेम है, वहाँ संदेह के लिये कोई स्थान नहीं हो सकता. वह वह एकाकी मृत्युपाश को स्वीकार कर सकता है किंतु पर-आलम्बन की कल्पना से मुक्त होता है “.

“ नहीं अर्पण ! आदर्शों और सिंद्धांतों की इतनी गहराई में मत जा. पृथ्वीराज बन कर अपनी संयोगिता को जग से छीन ले “.

“ हाँ मन ! मैं पृथ्वीराज बनने के पूर्व प्रतीक्षा को संयोगिता के चरित्र में गढ़ना चाहता हूँ. वह संयोगिता जो अपने पिता के समक्ष, आमंत्रित राजकुमारों के कंठ में स्वयम्वर का हार न पहनाकर चौराहे पर स्थापित पृथ्वीराज के उपेक्षित पुतले को वरना स्वीकार करती है. काश ! प्रतीक्षा, संयोगिता बने तो मुझे पृथ्वीराज बनकर अपहरण करने में आपत्ति नहीं होगी “.

मन ने कहा – “ अर्पण ! मैंने तुझमें देखा है कि तू स्वयम स्थिर होकर प्रतीक्षा से ही पहल की इच्छा रखता है “.

हाँ मन ! मैं सूर्य हूँ, मैं स्थिर हूँ. दहकता हूँ और गगनांचल में सुनहरे तार बुनता हूँ. मेरी प्रेयसी को पृथ्वी की भाँति मेरे चारों ओर परिभ्रमण करना चाहिये. प्रकृति के सम्बंधों में तूने देखा है कितनी ही पृथ्वियाँ सूर्य के चक्कर लगाती हैं किंतु सूर्य स्थिर है. पृथ्वी स्वयम भी चक्कर काटती है, अपनी धुरी पर. यदि यह क्रम टूटा तो पृथ्वी में प्रलय आ जायेगा. मैं प्रकृति के इसी सिद्धांत पर प्रतीक्षा को गतिशील रखना चाहता हूँ. मै अपने आदर्शों और सिद्धांतों पर अटल हूँ “.

     मन ने अर्पण की इस अटलता और हठधर्मिता के समक्ष हार स्वीकार कर ली. अर्पण के खोखले आदर्श और सिद्धांत उसकी समझ से परे थे. मन मूक हो गया है. उसे ज्ञात है कि अर्पण की  यह हठधर्मिता ही उसके विनाश का कारण बन जायेगी. मन मृत हो जायेगा, तर्क-शून्य हो जायेगा और मन के मृत होने से अर्पण नितांत अकेला हो जायेगा. मन कुछ सोच रहा है और अर्पण अपने निवास की ओर बढ़ रहा है.........मन न जाने किन अज्ञात गतिविधियों की प्रतीक्षा कर रहा है.

( रचना तिथि 17.08.1979 )

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग
छतीसगढ़




5 comments:

  1. 32 वर्ष पूर्व मन जैसे बातें करता था, आज भी वैसे ही बतियाता होगा।

    ReplyDelete
  2. प्रतीक्षा, संयोगिता बने तो मुझे पृथ्वीराज बनकर अपहरण करने में आपत्ति नहीं होगी

    इतनी दृढ़ता तो होनी ही चाहिए ... अच्छी प्रस्तुति ...

    ReplyDelete
  3. बेहद खूबसूरत....
    .अच्छा लगा..

    अपने ब्लाग् को जोड़े यहां से 1 ब्लॉग सबका

    ReplyDelete
  4. बहुत सुंदर ...प्रवाहमयी प्रस्तुति

    ReplyDelete
  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति| धन्यवाद|

    ReplyDelete