गुजरा जमाना बचपन का,हाये रे अकेले छोड़ के जाना,और न आना बचपन का आया है मुझे फिर याद वो जालिम...राजकपूर साहब की फिल्म तीसरी कसम का यह गीत मुकेश जी की आवाज में सभी ने सुना होगा.इस गीत को सुन कर सभी को अपने-अपने बचपन की याद जरुर आती होगी.शायद चार वर्ष की उम्र की धुंधली सी यादें,फिर प्राथमिक शाला की यादें,उसके बाद किशोरावस्था की यादें,फिर ग्यारहवीं कक्षा की यादें.
बचपन के संगी-साथी,कुछ अभिन्न सहपाठी,कुछ गुरुजनों की यादें,दादा-दादी,नाना-नानी की गोद में बैठ कर कहानियाँ सुनना ,कुछ कच्ची उम्र की शरारतें,फिर कालेज के शुरुवाती दिनों की यादें.पढ़ाई पूर्ण होने के बाद कुछ दिन बेरोजगारी के,कुछ यादें नौकरी लगने के प्रारंभिक दिनों की,कुछ आकर्षण,कुछ लगाव.दांपत्य जीवन का प्रारंभ,आँगन में नन्हे बच्चों की किलकारियां.उन बच्चों के बचपन के सूर्योदय के साथ ही अपने बचपन का सूर्यास्त,फिर स्वभाव में कुछ गंभीरता.धीरे-धीरे घर और आफिस की जवाबदारी में अपने आप को भूल जाने की मजबूरियाँ.
शायद प्रौढ़ावस्था तक का जीवन चक्र यही है.उम्र के इस पड़ाव में जब कभी भी थोड़ी सी फुर्सत मिलती है,बचपन याद आता है और मन में एक मीठी सी गुदगुदी होने लगती है.मेरा बचपन छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर में बीता है.पिताजी बैथस् र्ट प्राथमिक शाला में प्रधान पाठक थे .पाँच वर्ष की उम्र में मुझे शाला लेकर गए.अन्य अध्यापक श्री राजेंद्र प्रसाद श्रीवास्तव ने मुझसे कुछ प्रश्न पूछे फिर बायें हाथ को सिर के ऊपर से लेजाते हुए दाहिने कान को छूने को कहा.हाथ की उंगलियाँ कान को छूने में सफल रहीं.गुरूजी ने कहा ठीक है कल से शाला आ जाना.दाखिल-ख़ारिज में नाम दाखिल हो गया.उस ज़माने में शाला में भर्ती करने के लिए इसी प्रकार से कान छूने की प्रथा चला करती थी.इससे यह पता चलता था कि बच्चे की उम्र शाला में भर्ती करने के लायक हो गई है.(क्रमश:)
-अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर ,दुर्ग
छत्तीसगढ़
आदित्य नगर ,दुर्ग
छत्तीसगढ़
Very Interesting...
ReplyDeleteAwaiting for next post.
खूब याद दिलाया अरुण भाई..हमारा एडमिशन भी ऐसे ही कान छुलवा कर हुआ था. :)
ReplyDeleteऔर किस्से सुनाये बचपन के.
बचपन की यादें शायद कभी नहीं भूलतीं।
ReplyDeleteरोचक संस्मरण।
बच्चों में अपना बचपन दिखता है।
ReplyDelete