Wednesday, May 25, 2011

मेरा बचपन ऐसे बीता,,,,,,,,,,,(भाग-4)


बाल्यकाल के खेल यानी मनोरंजन के साथ व्यायाम और व्यायाम के साथ साथ बौद्धिक विकास. दस वर्ष की उम्र तक के खेल भी बड़े निराले हुआ करते थे. कटमट-राइट ,नदी-पहाड़ ,फिकी-फिकी व्हाट कलर, रेस-टीप ,पिट्टूल , डंडा-पचरंगा, तिरि-पासा ,बिल्लस ,रस्सी ,फुगड़ी ,गोटा आदि.
कटमट-राईट में स्लेट पर दो आड़ी समानांतर रेखायें खींचीं जाती थी उनको बीचों बीच लम्बवत काटती हुई दो अन्य समानांतर रेखायें खींचने से नौ खंडों की आकृति बन जाती थी. इस खेल को दो बच्चे खेल सकते थे. खेल की शुरुवात करते हुये पहला बच्चा राईट का निशान अंकित करता था.दूसरा बच्चा अन्य खाने में क्रास का निशान बनाता था ,फिर पहला किसी खाने में राईट का निशान बनाता था. स्लेट पर बनी आकृति के तीन क्षैतिज तथा तीन उर्ध्व खानों में से किसी भी एक खाने में जिसके लगातार तीन निशान बन जाते थे वह जीत जाता था. स्लेट साफ करके तुरंत ही दूसरा राउंड शुरु हो जाता था. यह खेल कापी पर भी आकृति तैयार करके खेला जा सकता है. इस खेल से बच्चों में त्वरित निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता था. आप भी अपने बच्चे (किसी भी उम्र के) या जीवन साथी के साथ इस इनडोर गेम को खेल कर देखें. बहुत आनंद आयेगा ,पारिवारिक नजदीकियां बढ़ेंगी और तनाव से मुक्ति मिलेगी. लागत शून्य – फायदा असीमित.
नदी-पहाड़ का खेल प्राय: चार से छ: वर्ष की उम्र के बच्चों को बहुत ही प्यारा लगता है. घर के सामने का आंगन ही नदी होता था और आसपास के चबूतरे या धरातल से ऊँचा कोई सा भी स्थान पहाड़ माना जाता था. एक ही आयु वर्ग के भाई –बहन और आस-पड़ोस के बच्चों के साथ  इसे खेलते थे. इस खेल में एक बच्चा नदी (धरातल) में रहता था बाकी एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ तक  नदी से होकर दौड़ कर जाते थे .इसी दौरान नदी वाला बच्चा अन्य बच्चों को पहाड़ पर पहुँचने के पहले ही छूने का प्रयास करता था. खेल की भाषा में इसे “दाम देना” कहते थे. दाम देने वाला जब किसी को पहाड़ पर पहुँचने के पहले छू लेता था वह आउट माना जाता था और फिर उसे दाम देना पड़ता था. दाम लेने वाले बच्चे सतर्क होकर नदी में उतर कर दाम देने वाले को कमर मटका कर चिढ़ाते हुये गाते थे – तेरी नदी में छम्मक-छू. दाम देने वाला बच्चा दौड़ कर उन्हें छूने का प्रयास करता था. इस खेल में शारीरिक व्यायाम के साथ साथ सतर्क रहने तथा अपना बचाव करने की शक्ति का विकास सहज ही होता
था..................................क्रमश:..............................................
 
-अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग
(छत्तीसगढ़)

10 comments:

  1. नदी और पहाड़ वाले खेल की तरह ही हमारे क्षेत्र में इसे 'ऊँच-नीच का पापडा' नामक खेल कहा जाता था.
    अब भी कुछ बच्चे ये खेल खेलते मिल जाते हैं तो बहुत खुशी होती है.... जब ये खेल शुरू किया जाता है तब एक गीति शैली में एक पंक्ति बोली जाती है "ऊँच-नीच का पापडा, ऊँच माँगी.... नी...च"
    वैसे इन खेलों से पारस्परिक जुड़ाव हो जाता था... लेकिन अब तो समय काफी बदल गया है... अधिकांश बच्चे मोबाइल और कम्प्यूटर से खेलते दिखते हैं.. पार्कों में भी क्रिकेट या बेड-मिन्टन जैसे ही खेल खेलते मिलते हैं. .... देसी खेल तो बहुत कम ही खेले जाते हैं...अब केवल उनकी स्मृतियों से खेल पाते हैं...आपने बाल्यकाल की स्मृतियों को ताज़ा करवाया..आभार.

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  2. वशिष्ठ जी नमस्कार इस श्रृंखला में स्मृतियाँ लिख कर नई पीढ़ी को ज्ञान देना चाह रहा हूँ कि उनके अभिभावक कैसे खेला करते थे.साथ ही जीवन की आपधापी में उलझे अपने हमउम्र साथियों को बचपन की यादों में ले जा कर कुछ पल तनाव मुक्त करना चाहता हूँ.ये यादें लगभग पचास वर्ष पुरानी हैं.कुछ मेमोरी से डिलीट हो रही हैं.उसे संचित करने का प्रयास है.मेरी यादों के साथ आप भी अपने बचपन में पहुँच गए.मन में कुछ तो गुदगुदी उठी होगी.बस मेरा उद्देश्य पूरा हुआ .

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  3. पढते हुए ऐसा लग रहा है कि बचपन में लौट गए हों ... वही सारे खेल और वैसी ही शिक्षा ...आनंद आ रहा है आपकी दास्ताँ में

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  4. देशी खेलों में बिना खर्चे पूरा आनन्द आता है।

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  5. बाल्यकाल की स्मृतियों को ताज़ा करवाया आपने..आभार....

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  6. सुन्दर, रोचक संस्मरण....जारी हूँ आपके साथ साथ... कुछ नया भी सीख रही हूँ , जो पहले नहीं सुना था।

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  7. बचपन के दिन भी क्या दिन थे

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  8. कटमट-राइट ,नदी-पहाड़ ,फिकी-फिकी व्हाट कलर, रेस-टीप ,पिट्टूल , डंडा-पचरंगा, तिरि-पासा ,बिल्लस ,रस्सी ,फुगड़ी ,गोटा आदि.

    देसी खेलों की तो बात ही न्यारी है........ आज के दौर के बच्चे बहुत कुछ मिस कर रहे हैं शहरीकरण के चलते..... सुंदर विवरण

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  9. बाल्यकाल की स्मृतियों को ताज़ा करवाया आपने|धन्यवाद|

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  10. those senseless and worry less days are immortal memoirs of our lives...
    Whenever you look back to them, there will always be a smile on your face.

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